मंगलवार, 21 सितंबर 2010

विकारों को दूर करने के लिए योग करें

मनोभावों और चिंता संबंधी विकारों को दूर करने के लिए योग से अच्छा उपाय और कुछ नहीं हो सकता है।
'
बोस्टन युनीवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडीसिन' के शोधकर्ताओं ने योग और चिंता के कम होने जीएबीए (ब्रेन गामा-एमीनोबुटायरिक) स्तर के बढ़ने के बीच संबंध स्थापित किया है। 'जर्नल ऑफ एल्टरनेटिव एंड काम्प्लीमेंटरी मेडीसिन' के मुताबिक जीएबीए का कम स्तर अवसाद और चिंता संबंधी अन्य विकारों से संबंधित होता है। बोस्टन विश्वविद्यालय द्वारा जारी किए गए एक वक्तव्य के मुताबिक शोधकर्ताओं ने 12 सप्ताह तक स्वस्थ लोगों के दो समूहों का अध्ययन किया। एक समूह ने सप्ताह में प्रत्येक दिन एक घंटे तक योग का अभ्यास किया जबकि दूसरे समूह के लोग इतने ही समय के लिए केवल टहले। इसके बाद 'मैग्नेटिक रीजोनेंस स्पेट्रोस्कोपी' (एमआरसी) के ज़रिए मस्तिष्क के चित्र लिए गए। शोधकर्ताओं ने 12वें सप्ताह में दोनों समूहों के जीएबीए स्तर की तुलना की। दोनों समूह के प्रत्येक व्यक्ति से अध्ययन की विभिन्न अवस्थाओं में अपनी मानसिक अवस्था का आंकलन करने के लिए भी कहा गया। यह देखा गया जिन लोगों ने योगाभ्यास किया उनमें पैदल चलने या टहलने वाले लोगों की अपेक्षा चिंता का स्तर कम हुआ और उनके मनोभावों में सुधार देखा गया। बोस्टन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता क्रिस स्ट्रीटर कहते हैं कि योगाभ्यास को कई मानसिक विकारों की बेहतर चिकित्सा के रूप में देखा जाता है।

उम्र 50 की, जवान 25 का

आप यकीन करें या करें लेकिन 50 साल में उम्र के जिस पड़ाव को अधेड़ अवस्था मान लिया जाता है, उसके बारे में एक सर्वेक्षण से पता चला है कि इस उम्र के अधेड़ 25 साल के जवानों से अधिक जवान और शौकीन होते हैं। ब्रिटेन में किए गए एक नए अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि 25 साल के जवानों के मुकाबले 50 साल के अधेड़ अधिक मिलनसार, खुशमिजाज और सक्रिय होते हैं। ये अधेड़ उम्र की तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद जिंदगी का मजा लेते हैं। चांदनी रातों का लुत्फ उठाते हैं, लांग ड्राइव पर जाते हैं और अक्सर अपनी शाम दोस्तों के साथ गुजारते हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि हर सप्ताह एक अधेड़ व्यक्ति दो बार घर से बाहर निकलता है और चार मित्रों से मिलता है। ऐसे लोग हर तीन सप्ताह बाद अपना बैग उठाकर घूमने निकल जाते हैं। इसके विपरीत करीब 20 वर्ष उम्र के जवान सप्ताह में केवल एक दिन ही शाम को बाहर निकल पाते हैं, तीन मित्रों से मिलते हैं और तीन चार महीनों में दो छोटे ब्रेक लेते हैं। सर्वेक्षण में 18 से 75 आयु वर्ग के चार हजार लोगों को शामिल किया गया। डेली एक्सप्रेस में इस अध्ययन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। अध्ययन कराने वाली बेंडेन हेल्थकेयर कंपनी के प्रवक्ता ने बताया 20 वर्ष आयु वर्ग के लोगों को तनाव और नौकरी का दबाव अधिक रहता है लेकिन ऐसा करने में वे जिंदगी के अन्य पहलुओं का आनंद उठाने से वंचित रह जाते हैं। 50 की उम्र में पहुंचना निश्चित रूप से फिर से 25 साल का जवान होना है।

धरती से जीवन खत्म हो जाएगा ?

माया कलेंडर 2012 से आगे नहीं बढ़ता इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि संभवतः 2012 में ही धरती से जीवन खत्म हो जाएगा। माया कलेंडर पर भले ही आप विश्वास करें या करें, वैज्ञानिकों पर तो भरोसा करेंगे। डराने वाली ताजा खबर वैज्ञानिकों की तरफ से आई है। उनके अनुसार 2012 में अगर आप बच भी गए तो 2013 बड़ी तबाही मचाने को तैयार है। इस बार तबाही मचाने की बारी है सूर्य की। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि वर्ष 2013 में सूर्य से एक ऐसी विशाल दमक पैदा होगी जिससे पृथ्वी पर तबाही मच सकती है। इस दमक के बाद घनघोर अंधेरा छा सकता है और भयंकर अव्यवस्था फैल सकती है। सन की रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों को डर है कि सूर्य से इतनी विशाल मात्रा में ऊर्जा के निकलने से विद्युत ग्रिड क्षतिग्रस्त हो सकते हैं, संचार व्यवस्था ठप्प हो सकती है, वायुयान भूमि पर गिर सकते हैं और इंटरनेट व्यवस्था पूरी तरह बंद हो सकती है। गौरतलब है कि इस तरह की घटना 100 सालों में सिर्फ एक बार ही होती है। ब्रिटेन में इलेक्ट्रिक इंफ्रास्ट्रचर सिक्युरिटी काउंसिल की तरफ से आयोजित एक सम्मेलन के दौरान इस विषय पर चर्चा की गई। इस दौरान ब्रिटेन के रक्षा सचिव लायम फॉक्स ने विशेषज्ञों को चेतावनी दी कि अगर वर्तमान युग में ऐसा विस्फोट होता है तो इससे अपूरणीय क्षति होगी। इसमें यह कहा गया कि 2013 तक सूर्य अपने चक्र की एक नाजुक स्थिति में पहुंच जाएगा। इसके वातावरण में चुंबकीय ऊर्जा की तरंगे विकिरण की आंधी को जन्म दे सकती हैं जिससे भारी मात्रा में ऊर्जा की लहरें उत्पन्न होंगी। फॉक्स ने वैज्ञानिकों से कहा कि वे इस आने वाली तबाही को रोकने के लिए पर्याप्त कदम उठाएं और इसके लिए रणनीतियां बनाएं।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

ईश्वर का बसाया स्वर्ग हमारे अपने भीतर ही है।

ईश्वर को लेकर दुनियाभर में लम्बे समय से अनगिनत छोटे-बड़े वाक्य प्रचलित हैं। इनमें प्रायः सद्विचारों पर ही जोर दिया जाता है। सद्विचार ही हमें ईश्वर के निकट ले जानेे में निःसन्देह रूप से विश्वसनीय सहायक सिद्ध होते हैं। ईश्वर को अपना मानकर उसके स्मरण मात्र से हम उसके साथ अपने विशिष्ट और स्वाभाविक सम्बन्ध बना लेते हैं। इससे हमारी दिनचर्या ही नहीं भविष्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हमें इस बात से काफी बल मिलता है कि ईश्वर हमारे साथ है। हम अकेले नहीं हैं। इस भावना और अनुभव से हमें परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से अनेकानेक लाभ मिलते रहते हैं।


ईश्वर रूपी महानतम विश्व स्रष्टा से हमारी निकटता उसके सृजन में सहज ही सहयोगी बन जाती है। उसका हर छोट-बड़ा सृजन अनूठा होता है। हमारा कर्लव्य है कि हम ईश्वर रचित इस संसार को अपने विचारों और प्रयासों से और अधिक सुन्दर बनाते जाएं। हम सभी के भीतर एक ऐसा अनूठा ईश्वरीय रूप है जो निष्कलंक, निष्पाप, सुन्दर तथा पवित्र है। वह कोई बुरा काम या पाप कर्म कर ही नहीं सकता। ईश्वर के इसी सच्चे रूप को पहचानकर अपने व्यवहार में लाएं तो निःसन्देह हम इस विश्व को और अधिक सुन्दर बना सकते हैं।

ईश्वर का बसाया स्वर्ग हमारे अपने भीतर ही है। तमाम महान शक्तियों, योग्यताओं, क्षमताओं आदि का स्रोत हमारे भीतर है। हम अपने भीतर से ही उत्साह, शक्ति, उल्लास, सुख, शांति आदि प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए कोई गोली, केप्सूल, टॉनिक या इंजेक्शन नहीं मिलता। हम ईश्वर पर भरोसा करके और स्वयं प्रयास करके अपने जीवन के हर पल को आनन्द और उत्साह से भरने के साथ-साथ इनका दूर-दूर तक प्रसार भी कर सकते हैं। अपने हृदय के तार उस सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर से जोड़कर हमें निःसन्देह लाभ ही होगा। इसके लिए आपको किसी ऐसे ढोंगी विचौलिए या दलाल की आवश्यकता नहीं है जो स्वयं को ईश्वर का दूत बताकर सबको मूर्ख बनाता हो।

वट वृक्ष का एक बीज कितना छोटा पर कितना क्षमतावान होता है। उसके छोटे आकार को देखकर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि धरती की मिट्टी, पानी और सूरज की किरणों से विकसित होकर वह कितना विशालकाय रूप लेकर सबके सामने आकर आश्चर्य में उाल सकता है। ईश्वर का सृजन निरन्तर चलता रहता है। अजर-अमर, अनन्त, असीम और अथक रूप से सर्जन करने वाला ईश्वर कण-कण में स्वयं मौजूद भी रहता है। वह हम सबके भीतर है। कोई अकेला नहीं। फिर हम क्यों स्वयं को अकेला समझें, क्यों डरें, क्यों संशय करें, क्यों स्वयं को असहाय मानें। अपने ईश्वर से अलग होने की सोचना ही गलत है। वह हमारा रचयिता है, हमारा मूल है। उससे अलग होकर हमें सिवा कष्ट, परेशानियों, बीमारियों, विपलियों, बाधाओं आदि के कुछ और नहीं मिलने वाला।

हम अपने कार्यों-कर्लव्यों को एक बड़ा व्यापार मानें जिसमें ईश्वर हमारा ऐसा साझीदार या पार्टनर है जिसकी हिस्सेदारी हमसे ज्यादा है। हालांकि वह आपसे अपनी इस भूमिका के बदले कुछ लेगा नहीं। वह लेता नहीं, सदा देता है। सो, अपना सब कुछ उसे सौंपकर उसके साथ ईमानदारी से व्यापार करें। इसके लिए स्वयं को संकुचित बाड़ों से मुक्त करना जरूरी है। स्वार्थ, परपीड़ा सुख, निन्दा, ईर्श्या, दुर्भावना, आलस आदि से बचकर चलें और अपने मार्ग पर चलते रहें तो निःसन्देह हमारे हृदय में अनूठे उत्साह, उल्लास और सच्चे सुख की ऐसी धारा फूटेगी जो हमारे साथ-साथ और तमाम लोगों के जीवन को आनन्द से भर देगी।

मनुष्य के भीतर उपस्थित उस महान शक्ति ने अनगिनत नवनिर्माण और आविष्कारों को जन्म दिया है। इनसे सम्पूर्ण मानव समाज का भला हुआ है। हालांकि अनेक वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी ईश्वर के अस्तित्व को नकारते रहे हैं। पर वे किसी अनूठी और अज्ञात शक्ति की उपस्थिति को स्वीकार भी करते हैं। उस अनजानी शक्ति के अनगिनत आविष्कारों का जवाब किसी के पास नहीं है। ऐसे लोग काफी धन और समय खर्च करते हुए ईश्वर के अस्तित्व की खोज में भी जुट जाते हैं।

विश्व के तमाम महान व्यक्ति जिनमें विभिन्न कार्य क्षेत्रों से जुड़े लोग शामिल हैं, अपने कायों सफलता या सपनों के साकार होने के पीछे ईश्वर की महत्वपूर्ण भूमिका को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं। अन्तःप्रेरणा और बुद्धिमला को वे ईश्वरीय देन मानते हैं। अपने विचारों और सपनों के साकार होने पर ईश्वर का हृदय से आभार प्रकट करना नहीं भूलते। एक साधारण मनुष्य को विलक्षणता प्रदान करने वाली शक्ति ईश्वर के अलावा और कौन हो सकती है।

धैर्य और विश्वास के अभाव में जिन लोगों ने ईश्वर से स्वयं को अलग कर लिया और अपने मस्तिष्क व हृदय की बात को अनसुना कर दिया, वे पतन के गर्त में गिरते चले गये। उन्हें दैत्य बनते देर नहीं लगी। मानवता की राह छोड़ वे दानवता की राह चल पड़े। नशा और परपीड़ा उन्हें सुख पहुंचाने लगी। जबकि वास्तविकता वे स्वयं भलीभांति जानते हैं। अपने हृदय की आवाज की अनसुनी कर वे ऐसी राह पकड़ लेते हैं जो उनके, परिवार के, इष्टमित्रों के, समाज के, शहर के, देश के और विश्व के लिए किसी भी रूप में हितकर नहीं होतीं।

Janmasthmi Special

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

FACEFORT 2 MANAALI

अचेतन मन खोलता है अनन्त रहस्यों के द्वार

मनुष्य
अचेतन
चेतन और अचेतन-दो मन की शक्तियों से कार्य करता है। चेतन मन की शक्ति सीमित है जबकि अचेतन मन की शक्या असीमित हैं। विश्व में आज ङ्क्षहसा, डर, क्रोध, घृणा, ईष्र्या, असुरक्षा और बदले की जो भावना दिखाई देती है, उसकी वजह अचेतन में छिपे नकारात्मक विचार हैं। व्यक्ति जब इन नकारात्मक विचारों को अचेतन मन में ही दबाकर रखता है और उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं देता है तो शरीर की रासायनिक प्रक्रिया को विषाक्त करके तनाव, ङ्क्षचता, हृदय रोग, अल्सर आदि रोगों के रूप में ये शरीर में प्रकट होने लगते हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति नकारात्मक सोच से खुद को नुकसान पहुंचा रहा है। क्रोध के बाहर निकलते आवेग को जाने कितने बार उसने दबाया है। चेतन मन की शक्ति बारह प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, जबकि अचेतन मन 88 प्रतिशत शक्ति रखता है। मनुष्य केवल चेतन मन की शक्ति से काम लेता है। यदि वह योग गुरुओं से अचेतन मन की शक्ति का का प्रयोग करने की विधि सीख लेता है तो अनन्त उपलब्धियां उसके कदमों को चूम सकती हैं। मन तो कभी सोता है और ही आराम करता है। दिल की धडकन, रक्त संचार, पाचन और उत्सर्जन क्रिया में उसी की भूमिका रहती है। अचेतन मन में ध्यान प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन की जो तस्वीर उतारता है, उसी तरह की घटनाएं हमारे जीवन में होने लगती हैं। व्यक्ति को ध्यान साधना के जरिए जब चेतन से अचेतन की यात्रा करायी जाती है तो योगगुरु उसे अचेतन मन में सदैव सकारात्मक सोच ले जाने का निर्देश देते हैं। जैसे-मेरा शरीर सदा निरोगी रहे, जीवन में समृद्धि आये आदि। अचेतन मन को जो भी निर्देश दिए जाते हैं, उसे वह तुरन्त स्वीकार कर लेता है। अचेतन मन में असीमित ज्ञान और बुद्धिमत्ता है। इस पर अच्छे या बुरे, जिस भी विचार की छाप व्यक्ति छोड़ता है, वह साकार होकर उसके जीवन में आने लगता है। इसलिए व्यक्ति को हमेशा सकारात्मक विचारों की छाप ही अचेतन मन पर छोडऩी चाहिए। ङ्क्षचता, डर, तनाव और निराशा हृदय, फेफडों, आमाशय और आंतों की सामान्य कार्यप्रणाली की गति को बाधित करते हैं। तनाव पैदा करने वाले विचार अचेतन मन के सांमजस्यपूर्ण कार्य में बाधा डालते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन उसके विचारों की प्रकृति के अनुरूप प्रवाहित होता है। सकारात्मक विचारों से अचेतन मन की नकारात्मकता के विचार मिट जाया करते हैं और उपचारक शक्ति स्वास्थ्य, सुख और शांति के रूप में व्यक्ति के शरीर में प्रवाहित होने लगती है। स्वास्थ्य के विचारों को अचेतन में प्रवाहित करके मनचाहा स्वास्थ्य अॢजत किया जा सकता है। यदि कोई मनुष्य पूरे शरीर को शिथिल करके प्रतिदिन पांच से दस मिनट तक ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहे-हे.. ईश्वर..तुम्हारी पूर्ण शक्ति मुझमें समा रही है। यह ऊर्जा यानी शक्ति मेरे अचेतन मन में भरती जा रही है। तुमने जो स्वस्थ शरीर मुझे दिया था, वैसा ही रोगरहित शरीर मुझे फिर से प्राप्त हो। इस स्वस्थ विचार को ग्रहण करने से अचेतन मन की शक्ति अपना कार्य शुरू करके रोग को अच्छा करना शुरू कर देती है। सबसे अच्छा तो यह है कि व्यक्ति आंखें बंद करके अपने स्वस्थ शरीर की तस्वीर या स्वयं के स्वस्थ शरीर को देखने का प्रतिदिन अभ्यास शुरू कर दे। इसके परिणाम कुछ ही दिनों में व्यक्ति को दिखाई देने शुरू हो जाएंगे।