शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

ईश्वर का बसाया स्वर्ग हमारे अपने भीतर ही है।

ईश्वर को लेकर दुनियाभर में लम्बे समय से अनगिनत छोटे-बड़े वाक्य प्रचलित हैं। इनमें प्रायः सद्विचारों पर ही जोर दिया जाता है। सद्विचार ही हमें ईश्वर के निकट ले जानेे में निःसन्देह रूप से विश्वसनीय सहायक सिद्ध होते हैं। ईश्वर को अपना मानकर उसके स्मरण मात्र से हम उसके साथ अपने विशिष्ट और स्वाभाविक सम्बन्ध बना लेते हैं। इससे हमारी दिनचर्या ही नहीं भविष्य पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हमें इस बात से काफी बल मिलता है कि ईश्वर हमारे साथ है। हम अकेले नहीं हैं। इस भावना और अनुभव से हमें परोक्ष तथा अपरोक्ष रूप से अनेकानेक लाभ मिलते रहते हैं।


ईश्वर रूपी महानतम विश्व स्रष्टा से हमारी निकटता उसके सृजन में सहज ही सहयोगी बन जाती है। उसका हर छोट-बड़ा सृजन अनूठा होता है। हमारा कर्लव्य है कि हम ईश्वर रचित इस संसार को अपने विचारों और प्रयासों से और अधिक सुन्दर बनाते जाएं। हम सभी के भीतर एक ऐसा अनूठा ईश्वरीय रूप है जो निष्कलंक, निष्पाप, सुन्दर तथा पवित्र है। वह कोई बुरा काम या पाप कर्म कर ही नहीं सकता। ईश्वर के इसी सच्चे रूप को पहचानकर अपने व्यवहार में लाएं तो निःसन्देह हम इस विश्व को और अधिक सुन्दर बना सकते हैं।

ईश्वर का बसाया स्वर्ग हमारे अपने भीतर ही है। तमाम महान शक्तियों, योग्यताओं, क्षमताओं आदि का स्रोत हमारे भीतर है। हम अपने भीतर से ही उत्साह, शक्ति, उल्लास, सुख, शांति आदि प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए कोई गोली, केप्सूल, टॉनिक या इंजेक्शन नहीं मिलता। हम ईश्वर पर भरोसा करके और स्वयं प्रयास करके अपने जीवन के हर पल को आनन्द और उत्साह से भरने के साथ-साथ इनका दूर-दूर तक प्रसार भी कर सकते हैं। अपने हृदय के तार उस सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर से जोड़कर हमें निःसन्देह लाभ ही होगा। इसके लिए आपको किसी ऐसे ढोंगी विचौलिए या दलाल की आवश्यकता नहीं है जो स्वयं को ईश्वर का दूत बताकर सबको मूर्ख बनाता हो।

वट वृक्ष का एक बीज कितना छोटा पर कितना क्षमतावान होता है। उसके छोटे आकार को देखकर यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि धरती की मिट्टी, पानी और सूरज की किरणों से विकसित होकर वह कितना विशालकाय रूप लेकर सबके सामने आकर आश्चर्य में उाल सकता है। ईश्वर का सृजन निरन्तर चलता रहता है। अजर-अमर, अनन्त, असीम और अथक रूप से सर्जन करने वाला ईश्वर कण-कण में स्वयं मौजूद भी रहता है। वह हम सबके भीतर है। कोई अकेला नहीं। फिर हम क्यों स्वयं को अकेला समझें, क्यों डरें, क्यों संशय करें, क्यों स्वयं को असहाय मानें। अपने ईश्वर से अलग होने की सोचना ही गलत है। वह हमारा रचयिता है, हमारा मूल है। उससे अलग होकर हमें सिवा कष्ट, परेशानियों, बीमारियों, विपलियों, बाधाओं आदि के कुछ और नहीं मिलने वाला।

हम अपने कार्यों-कर्लव्यों को एक बड़ा व्यापार मानें जिसमें ईश्वर हमारा ऐसा साझीदार या पार्टनर है जिसकी हिस्सेदारी हमसे ज्यादा है। हालांकि वह आपसे अपनी इस भूमिका के बदले कुछ लेगा नहीं। वह लेता नहीं, सदा देता है। सो, अपना सब कुछ उसे सौंपकर उसके साथ ईमानदारी से व्यापार करें। इसके लिए स्वयं को संकुचित बाड़ों से मुक्त करना जरूरी है। स्वार्थ, परपीड़ा सुख, निन्दा, ईर्श्या, दुर्भावना, आलस आदि से बचकर चलें और अपने मार्ग पर चलते रहें तो निःसन्देह हमारे हृदय में अनूठे उत्साह, उल्लास और सच्चे सुख की ऐसी धारा फूटेगी जो हमारे साथ-साथ और तमाम लोगों के जीवन को आनन्द से भर देगी।

मनुष्य के भीतर उपस्थित उस महान शक्ति ने अनगिनत नवनिर्माण और आविष्कारों को जन्म दिया है। इनसे सम्पूर्ण मानव समाज का भला हुआ है। हालांकि अनेक वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी ईश्वर के अस्तित्व को नकारते रहे हैं। पर वे किसी अनूठी और अज्ञात शक्ति की उपस्थिति को स्वीकार भी करते हैं। उस अनजानी शक्ति के अनगिनत आविष्कारों का जवाब किसी के पास नहीं है। ऐसे लोग काफी धन और समय खर्च करते हुए ईश्वर के अस्तित्व की खोज में भी जुट जाते हैं।

विश्व के तमाम महान व्यक्ति जिनमें विभिन्न कार्य क्षेत्रों से जुड़े लोग शामिल हैं, अपने कायों सफलता या सपनों के साकार होने के पीछे ईश्वर की महत्वपूर्ण भूमिका को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते हैं। अन्तःप्रेरणा और बुद्धिमला को वे ईश्वरीय देन मानते हैं। अपने विचारों और सपनों के साकार होने पर ईश्वर का हृदय से आभार प्रकट करना नहीं भूलते। एक साधारण मनुष्य को विलक्षणता प्रदान करने वाली शक्ति ईश्वर के अलावा और कौन हो सकती है।

धैर्य और विश्वास के अभाव में जिन लोगों ने ईश्वर से स्वयं को अलग कर लिया और अपने मस्तिष्क व हृदय की बात को अनसुना कर दिया, वे पतन के गर्त में गिरते चले गये। उन्हें दैत्य बनते देर नहीं लगी। मानवता की राह छोड़ वे दानवता की राह चल पड़े। नशा और परपीड़ा उन्हें सुख पहुंचाने लगी। जबकि वास्तविकता वे स्वयं भलीभांति जानते हैं। अपने हृदय की आवाज की अनसुनी कर वे ऐसी राह पकड़ लेते हैं जो उनके, परिवार के, इष्टमित्रों के, समाज के, शहर के, देश के और विश्व के लिए किसी भी रूप में हितकर नहीं होतीं।

Janmasthmi Special